हत्यारे की फांसी पर ऐसी सियासत किसलिए?

याकूब मेमन, राजनीतिक बहस के लिए एक ऐसा मुद्दा जिसने पूरे देश की राजनीति में उथल पुथल मचा दी है। ऐसा विश्व में शायद ही किसी और देश में होगा कि देश के उस महान इंसान, जिसने देश की देश की सैन्य शक्ति का विश्व भर में लोहा मनवाया हो,  की मृत्यु पर आँखें नम करने की बजाए किसी आतंकवादी की फांसी पर अफ़सोस जताया जा रहा हो। याकूब मेमन को फांसी देने पर देश का सियासती माहौल जितना गरमाया है शायद ही किसी जरूरी गंभीर मुद्दे पर भी कभी ऐसा हुआ हो। याकूब की फांसी का समर्थन करने वाले इतने लोग सामने नहीं आये बल्कि उससे ज्यादा फांसी का विरोध करने वाले निकल आये। केवल विरोध करने तक ही बात सीमित हो तो कड़वा घूँट पी कर मन को समझा लें किन्तु इनमें से कुछ लोगों ने 1993 मुंबई हमलो के दोषी को निर्दोष ही बता दिया। अब लोकतंत्र का इससे बड़ा बड़प्पन क्या होगा के कि देश की जनता उन लोगों को भी झेल रहे है जो सरेआम आतंकवादियों की फांसी का विरोध कर रहे थे।

देश की न्यायपालिका ने भी याकूब मेमन के प्रति काम उदारता नहीं दिखाई। मरने के उपरान्त याकूब के साथ वैसा सलूक नहीं किया गया जैसे अफजल गुरु और अजमल कसाब के साथ हुआ था, बल्कि मेमन का शव उसके भाई के हवाले करदिया गया तथा खुलेआम उसे दफनाने भी दिया गया। देश के मीडिया ने भी याकूब के जनाजे में भीड़ जुटाने में विशेष भूमिका निभाई। टेलीविजन पर पल पल की खबर, याकूब को दफनाने का स्थान, ये सब कुछ सेकिण्ड के अंतराल पर दिखाया जा रहा था। यही वजह रही कि बड़ी तादात में मुस्लिम लोग याकूब के जनाजे में शामिल हो गए। यह कहना बिलकुल भी अतिश्योक्ती नहीं होगा कि देश के जनता में धैर्य कूट कूट कर भरा हुआ है। खासकर उन लोगों के धैर्य की प्रशंसा करनी होगी जिन्होंने मुंबई सीरियल ब्लास्ट में खोये अपने परिजनों के हत्यारे का जनाजा अपने ही शहर में खुलेआम निकलने दिया। याकूब मेमन की फांसी के दिन का हाल बहुत भयानक भी हो सकता था अगर देश की जनता में यह सहनशीलता ना होती। लेकिन यह सहनशीलता कहाँ तक सही है? एक आतंकी के जनाजे में शामिल हुए लोग या उसकी फ़ांसी का विरोध करने वाले लोग क्या इसे देश की जनता की दुर्बलता तो नहीं मान रहे?

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि भारत एक लोकतान्त्रिक देश है। यहाँ पर सबको अपनी बात रखने का अधिकार समान रूप से प्राप्त है। लेकिन क्या इसे देश की न्यायपालिका की कमजोरी समझें या कुछ और कि एक-दो राजनीतिक लोग सरेआम याकूब मेमन की सज़ा को साम्प्रदायिक रंग देकर उसे हिन्दू-मुस्लिम का मुद्दा बना देते है। क्या यह खतरनाक साबित नहीं हो सकता? क्या इससे देश में हिंसात्मक माहौल पैदा नहीं हो सकता? यदि हां तो ऐसे लोगों पर कार्यवाही का कोई प्रावधान नहीं है? कुछ पार्टियों के नेताओं ने याकूब की फांसी के आधार को मुस्लिम धर्म के साथ जोड़कर देश के माहौल को और भी गर्म कर दिया। क्या यह सही है? क्या न्यायपालिका को इस पर कोई कार्यवाही नहीं करनी चाहिए थी? जो लोग चिल्ला चिल्लाकर ये आरोप लगा रहे थे कि याकूब को फांसी इसलिए दी जा रही है क्यूंकि वह एक मुसलमान है, उनके इन आरोपों का कोई वजूद नहीं है। यदि ऐसा होता तो जिन लोगों ने 1993 में मुंबई हमले के के लिए बम फिट किये थे वो सब भी मुसलमान थे तो उनको फांसी क्यों नहीं दी गयी। इन बम फिट करने वालो को मुसलमान होने के बावजूद फांसी नहीं दी गयी तथा उस हमले का षड्यंत्र रचने वाले को फांसी दी गयी। जिसका अपराद जितना बड़ा होता है उसे उसके अनुसार ही दंड भी मिलता है। ना कि उसे इस आधार पर देखा जाता है कि वो हिन्दू है या मुस्लमान। यदि कोई दहशतगर्द हिन्दू होता तो कानून उसे भी सज़ा-ए-मौत ही देता। इसी का उदाहरण है कि महात्मा गांधी तथा इंदिरा गांधी की ह्त्या करने वालो को भी फांसी के फंदे पर लटकाया गया था। क्या वो मुसलमान थे?   यदि याकूब को फांसी की सज़ा देने की वजह उसका धर्म होता तो देश के कुछ बुद्धिजीवी लोग तथा बड़े बड़े वकील उसे बचाने के लिए अपनी साख दांव पर नहीं लगाते। जबकि ये लोग तो मुसलमान भी नहीं थे। इन लोगों को देशद्रोही कहना भी गलत होगा क्यूंकि इन लोगों के तर्क में भी कुछ तो दम था। और साथ ही इन लोगों ने अपने तर्क का आधार दया और करुणा को बनाया था। इन लोगों का तर्क इसलिए भी महत्वपूर्ण बन जाता है क्यूंकि यदि याकूब भारत सरकार को उस साजिश में पाकिस्तान, दाऊद इब्राहिम, टाइगर मेमन का हाथ होने के बारे में नहीं बताता तो सरकार आज तक अँधेरे में ही तीर चला रही होती।

भारतीय खूफिया एजेंसी “रॉ” के वरिष्ठ अधिकारी बहुकुटुम्बी रमन द्वारा 2007 में लिखे लेख के अनुसार याकूब मेमन मुखबिर बन गया था तथा देश को कई खूफिया जानकारियां भी उपलब्ध करवा रहा था। इसलिए उसे छोड़ देना चाहिए था। लेकिन बी रमन के लेख ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं कि उन्होंने ये लेख 2007 में लिखा था तो अबतक छपवाया क्यों नहीं? उन्हें किस बात का डर था? और अब बी रमन ने जब ये लेख छपवाया है तो इसे सत्य कैसे मन लिया जाए? इसके पीछे तथ्य क्या है? मुकददमे के दौरान भी सरकार या किसी भी खुफिया एजेंसी ने याकूब द्वारा जानकारी उपलब्ध करवाने की कोई बात कभी नहीं कही ना ही उसे मुखबिर मानकर माफ़ करने की बात कभी कही। वही अगर अदालत की बात करें तो उसने याकूब को न्याय दिलाने के लिए 22 साल तक इंतज़ार जरूर किया। ऐसा पहले किसी भी अपराधी के साथ नहीं हुआ। फांसी वाले दिन भी सुबह 3 बजे अदालत लगायी गयी। क्या अदालत भविष्य में इतना कष्ट किसी गरीब पीड़ित को न्याय दिलाने के लिए करेगी।

याकूब मेमन, जिसने 12 मार्च, 1993 को पूरे देश को धमाकों से दहला दिया था वो किस आधार पर दया की भीख मांग रहा था? 257 लोगों का हत्यारा खुद मरने से क्यों डर रहा था? जिस प्रकार वह फांसी की सज़ा रोकने के लिए गिड़गिड़ा रहा था, इसने उसे बहुत कायर इंसान साबित कर दिया। यदि याकूब को माफ़ कर दिया जाता तो उन 10 कैदियों को कैसा लगता जिन्हें इन मेमन भाइयों ने आतंकवादी बनने के लिए प्रेरित किया था। जो अब जेल में उम्रकैद की सज़ा भुगत रहे हैं। खुद को फांसी से बचाने के लिए अपनी दलीलों में उसने बच्चों की शिक्षा जैसा भावनात्मक पैंतरा भी इस्तेमाल किया। उसने कहा कि वह जेल में लोगों को शिक्षा दे रहा है और वह अब सुधर चुका है। वह एक स्कूल खोलना चाहता है। बच्चों को पढ़ाना चाहता है। लेकिन उसके यह सारे तर्क उसके गुनाहों को कम नहीं करते। यदि क़ानून उसे माफ़ कर देता तो कानून भी उसके गुनाहों का भागीदार बन जाता साथ ही उन लोगों के दुःख का हिस्सेदार भी जिन्होंने मुंबई सीरियल धमाकों में अपना सब कुछ खो दिया। लोगों में भी यही सन्देश जाता कि कानून केवल बलवान का ही हिमायती होता है, फिर चाहे गरीब को इन्साफ मिले या ना मिले। याकूब मेमन को सच में अपने किये पर पछतावा था या वो सच में ही सुधर चुका था इस बात की गारंटी कोई भी नहीं ले सकता था। यदि उसे अपने किये पर सच में ही दुःख होता तो वो साहस के साथ खड़ा होकर अपने किये गए गुनाह को कबूल करता। फिर कानून उसे जो भी सज़ा देना मुनासिफ समझता, दे देता।